अंतिम प्रभा का है हमारा विक्रमी संवत यहाँ, है किन्तु औरों का उदय इतना पुराना भी कहाँ ?
ईसा,मुहम्मद आदि का जग में न था तब भी पता, कब की हमारी सभ्यता है, कौन सकता है बता? -मैथिलिशरण गुप्त

गुरुवार, 27 जून 2013

ॐ, साइमेटिक्स और श्री यन्त्र | Om, Cymatics and Sri Yantra or Sri Chakra

ॐ  ब्रह्मांड की अनाहत ध्वनि है। इसे अनहद भी कहते हैं। संपूर्ण ब्रह्मांड में यह अनवरत जारी है।
इस प्रणवाक्षर (प्रणव+अक्षर) भी कहते है प्रणव का अर्थ होता है तेज गूंजने वाला अर्थात जिसने शुन्य में तेज गूंज कर ब्रह्माण्ड की रचना की |
वैसे तो इसका महात्म्य वेदों, उपनिषदों, पुराणों तथा योग दर्शन में मिलता है परन्तु खासकर माण्डुक्य उपनिषद में इसी प्रणव शब्द का बारीकी से समझाया गया है  |
माण्डुक्य उपनिषद  के अनुसार यह ओ३म् शब्द तीन अक्षरों से मिलकर बना है- अ, उ, म. प्रत्येक अक्षर ईश्वर के अलग अलग नामों को अपने में समेटे हुए है. जैसे “अ” से व्यापक, सर्वदेशीय, और उपासना करने योग्य है. “उ” से बुद्धिमान, सूक्ष्म, सब अच्छाइयों का मूल, और नियम करने वाला है. “म” से अनंत, अमर, ज्ञानवान, और पालन करने वाला है. तथा यह ब्रह्मा, विष्णु और महेश का प्रतिक भी है |
आसान भाषा में कहा जाये तो निराकार इश्वर को एक शब्द में व्यक्त किया जाये तो वह शब्द ही है |

तपस्वी और योगी  जब ध्यान की गहरी अवस्था में उतरने लगते है तो यह नाद (ध्वनी) हमारे भीतर तथापि बाहर कम्पित होती स्पष्ट प्रतीत होने लगती है | साधारण मनुष्य उस ध्वनि को सुन नहीं सकता, लेकिन जो भी ओम का उच्चारण करता रहता है उसके आसपास सकारात्मक ऊर्जा का विकास होने लगता है। फिर भी उस ध्वनि को सुनने के लिए तो पूर्णत: मौन और ध्यान में होना जरूरी है |


हाल ही में हुए प्रयोगों के निष्कर्षों के आधार पर सूर्य से आने वाली रश्मियों में अ उ म की ध्वनी होती है इसकी पुष्टि भी हो चुकी है ।


Astronomers at the University of Sheffield have managed to record for the first time the eerie musical harmonies produced by the magnetic field in the outer atmosphere of the sun. And guess what? The flares sound like Om or Aum or ॐ or ओम् or ओ३म् !!

सूर्य से प्राप्त ध्वनी का  विडियो देखें :

http://www.telegraph.co.uk/science/science-video/7839269/Sun-flare-noises.html


ॐ को केवल सनातनियों के ईश्वरत्व का प्रतिक मानना उचित नही । जिस प्रकार सूर्य, वर्षा, जल तथा प्रकृति आदि किसी से भेदभाव नही करती, उसी प्रकार ॐ, वेद आदि भी समस्त मानव जाती के कल्याण हेतु है | यदि कोई इन्हें  केवल सनातनियों के ईश्वरत्व का प्रतिक मानें  तो इस हिसाब से सूर्य तथा समस्त ब्रह्माण्ड भी केवल हिन्दुओं का ही हुआ ना ? क्योकि सूर्य व ब्रहमांड सदेव ॐ का उद्घोष करते है (उपरोक्त फोटो देखें)

ॐ और Cymatics 
दोस्तों सर्वप्रथम समझते है की Cymatics क्या होता है ? ध्वनी से उत्पन्न तरंगों को मूरत रूप देना (making sound visible) Cymatics Science कहलाता है |
उदहारण के लिए यदि जल से भरे पात्र की दीवार पर चम्मच आदि से चोट करने पर जल में तरंगे प्रत्यक्ष दिखाई पड़ती है परन्तु यदि पात्र खाली हो तो ध्वनी तो सुनाई पड़ेगी किन्तु तरंग देखना संभव नही होगा । बस यही Cymatics  है | यह प्रयोग रेत के बारीख कणों, जल, पाउडर तथा ग्लिसरीन आदि पर किया जाता है |

 Cymatics Science  की आवश्यकता की अनुभूति इसलिए हुई क्यू की विभिन्न धार्मिक ग्रंथो में एक बात तो समान है की स्रष्टि की उत्पति एक 'शब्द' से हुई है !

“In the beginning was the Word, and the Word was with God, and the Word was God. He was in the beginning with God; all things were made through Him, and without him was not anything made that was made.”
– Bible, John 1:1


यहाँ प्रारंभिक ईश्वरीय शब्द का उल्लेख तो मिलता है किन्तु वो शब्द है क्या ? उसका गुण, उच्चारण कैसा है ? इस सन्दर्भ में जानकारी नही मिलती !
वो जानकरी मिलती है हमारे वैदिक ग्रंथो में ! और वो शब्द है ॐ (ओ३म्)

Quantum physics agrees that vibration (sound) is the essence of all forms in the creation. Sound vibration brings into being the visual world of forms.

The Rig Veda revealed long ago that this primal sound, this ‘Word of God’, is AUM (OM).

प्रक्रति  की उत्पत्ति तथा विकास को समझने में Cymatics ने अहम् भूमिका अदा की है और अभी भी इस पर अनेकों अनुसन्धान जारी है !

आधुनिक काल में  Hans Jenny (1904) जिन्हें cymatics का जनक कहा जाता है, ने ॐ ध्वनी से प्राप्त तरंगों पर कार्य किया ।
 Hans Jenny ने जब ॐ ध्वनी को रेत के बारीक़ कणों पर स्पंदित किया (resonate om sound in sand particles) तब उन्हें वृताकार रचनाएँ तथा उसके मध्य कई निर्मित त्रिभुज दिखाई दिए | जो आश्चर्यजनक रूप से श्री यन्त्र से मेल खाते थे । इसी प्रकार ॐ की  अलग अलग आवृति पर उपरोक्त प्रयोग करने पर अलग अलग परन्तु गोलाकार आकृतियाँ प्राप्त होती है ।
http://www.youtube.com/watch?v=a0h9-b5Knvg

इसके पश्चात तो बस जेनी आश्चर्य से भर गये और उन्होंने संस्कृत के प्रत्येक अक्षर (52 अक्षर होते है जैसे अंग्रेजी में 26 है) को इसी प्रकार रेत के बारीक़ कणों पर स्पंदित किया तब उन्हें उसी अक्षर की रेत कणों द्वारा लिखित छवि प्राप्त हुई । 


"Jenny also discovered that when the individual sounds of the Vedic Sanskrit alphabet are spoken, the written form of the letter appeared in the tonoscope. The sound of the letter is the vibratory form of the letter."  (बड़ा करने के लिए चित्र पर क्लिक करें )



निष्कर्ष :
1. ॐ ध्वनी को रेत के बारीक़ कणों पर स्पंदित करने पर प्राप्त छवि --> श्री यन्त्र 
2. जैसा की हम जानते है श्री यन्त्र संस्कृत के 52 अक्षरों को व्यक्त करता है |
3.  -->श्री यन्त्र-->संस्कृत वर्णमाला
4. ॐ --> संस्कृत 
संस्कृत के संर्भ में हमने सदेव यही सुना की यह इश्वर प्रद्त  भाषा है ।
 ब्रह्म द्वारा सृष्टि उत्पति समय संस्कृत की वर्णमाला का अविर्भाव हुआ !
यह बात इस प्रयोग से स्पस्ट है की ब्रह्म (ॐ मूल) से ही संस्कृत की उत्पति हुई ।
 अब समझ में आ गया होगा संस्कृत क्यों देव भाषा/ देव वाणी कही जाती है !! 


http://www.unitedearth.com.au/sound.html
 http://aumstar.com/the-big-bang-how-aum-created-the-cosmos/#2
http://shivyogi.weebly.com/srichakra.html

 
इसके पश्चात एक अन्य वैज्ञानिक Dr. Howard Steingeril ने कई मन्त्रों पर शोध किया और पाया की  गायत्री मन्त्र   सर्वाधिक शक्तिशाली है इसके द्वारा निर्मित तरंग देध्र्य   में 110,000 तरंगे/सेकंड की गति से प्राप्त हुई ।
http://mahamantragayatri.com/glossary.html  


ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् । । 

गायत्री मंत्र ऋग्वेद के छंद 'तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्' 3.62.10 और यजुर्वेद के मंत्र ॐ भूर्भुवः स्वः से मिलकर बना है। 
इस मंत्र की सत्ता भी महामंत्र "" के समान मानी गयी है ! 

ॐ  के उच्चारण के कई शारीरिक, मानसिक, और आत्मिक लाभ हैं । पढने के लिए यहाँ जाएँ :
vaidikdharma.wordpress.com/2013/01/16/ओ३म्-ॐ-मानवता-का-सबसे-बड़ा-धन 


सर्जरी से पहले कहो ॐ (Medical Meditation: Say Om Before Surgery):

न्यूयार्क के 'कोलम्बिया प्रेसबाइटेरियन' के 'हार्ट इंस्टीच्यूट' में डॉक्टर मरीजों को आपरेशन से पहले ॐ का उच्चारण करने को कहते हैं, क्योंकि ॐ के जप से विश्रान्ति मिलती है। प्रसिद्ध शल्यचिकित्सक नरेश ट्रेहान कहते हैं- ऑपरेशन के दौरान ॐ की टेप चलाने से डॉक्टर और स्टॉफ में आत्मविश्वास की भावना आती है और रोगी भी सकारात्मक ढंग से सोचने लगता है।"
मनोचिकित्सक डॉ. संजय चुघ कहते हैं- "शरीर में तनाव होने से स्टिरोइड हार्मोन्स का स्तर बढ़ जाता है। ऑपरेशन के पूर्व एवं उसके पश्चात ॐ के उच्चारण, ध्यान आदि से स्टिरोइड का स्तर कम हो जाता है, जो कि शरीर के स्वास्थ्य के लिए अच्छा है।"
'माइंड∕बॉडी मेडिकल इन्सटीच्यूट के अध्यक्ष एवं हार्वर्ड मेडिकल स्कूल के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. हर्बर्ट बेन्सन ने 40 वर्ष तक अध्ययन करने के बाद मंत्रोच्चारण, योग, ध्यान की आवश्यकता को स्वीकार करते हुए कहाः "आज के युग में यह (मंत्रोच्चारण, योग, ध्यान) और भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि आज का मनुष्य जब डॉक्टर के पास जाता है तो वह 60 प्रतिशत तनावसंबंधी तकलीफों से ग्रस्त होता है।"

उक्त आधुनिक वैज्ञानिकों की खोज इस स्थूल शरीर तक ही सीमित है जबकि हमारे शास्त्रों के अनुसार ॐकार का प्रभाव व्यापक है। मरणोपरांत भी यह जीवात्मा का साथी है।

http://www.time.com/time/magazine/article/0,9171,1004086,00.html
http://www.ashram.org/Publications/ArticleView/tabid/417/articleid/1423/Default.aspx




कुण्डलिनी और Cymatics :
 योग विज्ञानं में मानव शरीर में सात उर्जा के केंद्र बताये गये है यथा मूलाधार चक्र,स्वाधिष्ठान, मणिपूर,
अनाहत चक्र, विशुद्ध चक्र, आज्ञा चक्र तथा  सहस्रार । जिनके जाग्रति के अलग अलग मंत्र भी दिए गये है ।
प्रथम चक्र  मूलाधार चक्र है जहाँ शक्ति वास करती है और इसे कुण्डलिनी शक्ति कहते है । मूलाधार चक्र द्वारा इस शक्ति को क्रमश एक एक कर प्रत्येक चक्र को पार करना होता है । हम यहाँ इस विषय की ओर न जाकर Cymatics की ओर चलते है । 

कुण्डलिनी योग में शरीर में स्थित सात चक्रों को अलग प्रतिक तथा उनके मंत्र दिए गये  है  |
जिसका वर्णन हमें इस प्रकार मिलता है की प्रथम चक्र का नाम मूलाधार चक्र है ये चार  पंखुड़ियों का  कमल होता है । और इसकी जाग्रति का मंत्र ' लं ' (Lam) है ।

यदि इन सात चक्रों के सात मन्त्रों पर उपरोक्त(
Cymatics) प्रयोग किया जाये तो प्राप्त आकृतियाँ इसी प्रकार की होंगी जैसी चित्र में दर्शाई गई है |  इन सातों कमलों की प्रत्येक पंखुड़ी पर संस्कृत का एक अक्षर स्थित होता है अर्थात चक्र से
उच्चारित होता है | किन्तु अतिअल्प होने के कारन कानो द्वारा सुने जाने का तो प्रश्न ही नही ।
 इसी तथ्य पर आधारित आधुनिक अल्ट्रासाउंड, इकोग्राफी तथा सोनोग्राफी आदि के माध्यम से  शरीर के अंगो से उच्चारित ध्वनी को  सुना जाता है और प्राप्त ध्वनी तरंगो की गणना के पश्चात रोग का पता लगाकर निदान किया जाता है ।
इस प्रकार 6 चक्रों तक में संस्कृत के कुल 52 अक्षर तथा अंतिम चक्र में पुरे 52 अक्षर होते है जिसका मूल मंत्र है ॐ । जैसा की हम ऊपर देख चुकें है ।


कई एक्स्ट्रा स्मार्ट ये सोचते होंगे की हमने पूरा शरीर चिर कर देख लिया एक भी कमल नही निकला । सारे ऋषि कल्पनाशील थे लोरे मारते थे !

इसी प्रकार महामृत्युञ्जय मंत्र तथा गायत्री मंत्र आदि द्वारा उनके यंत्रों की प्राप्ति होगी  ।

 हमारे ऋषियों ने  इन  यंत्रों की संरचनाओं को जान लिया था । अब या तो वे दिव्य द्रष्टा थे अथवा ये प्रयोग वे हजारों वर्षों पूर्व  कर चुके थे जिस समय विदेशी डिनर के लिए भालू के पीछे भागते थे |

गुरुवार, 20 जून 2013

इन्द्र अहल्या और गौतम का सत्य | Truth of Indra Ahalya and Gautama

Truth of Indra Ahalya and Gautama
Truth of Indra Ahalya and Gautama
सबसे पहले इन्द्र और अहल्या की कथा जो अब तक प्रचलित है वो देखते है फिर भांडा फोड़ेंगे .

देवों का राजा इन्द्र देवलोक में देहधारी देव था। वह गोतम ऋषि की स्त्री अहल्या के साथ जारकर्म किया करता था। एक दिन जब उन दोनों को गोतम ऋषि ने देख लिया, तब इस प्रकार शाप दिया की हे इन्द्र ! तू हजार भगवाला हो जा । तथा अहल्या को शाप दिया की तू पाषाणरूप हो जा। परन्तु जब उन्होंने गोतम ऋषि की प्रार्थना की कि हमारे शाप को मोक्षरण कैसे व कब मिलेगा, तब इन्द्र से तो कहा कि तुम्हारे हजार भग के स्थान में हजार नेत्र हो जायें, और अहल्या को वचन दिया कि जिस समय रामचन्द्र अवतार लेकर तेरे पर अपना चरण लगाएंगे, उस समय तू फिर अपने स्वरुप में आ जाओगी।

दोस्तों उपरोक्त कथा और सत्य कथा में कुछ कुछ उतना ही अंतर है जितना :
आज दुकान बंद रखा गया है 
आज दुकान बंदर खा गया है 
में है । 

इन्द्रा गच्छेति । .. गौरावस्कन्दिन्नहल्यायै जारेति । तधान्येवास्य चरणानि तैरेवैनमेंत्प्रमोदयिषति ।। 
शत ० का ० ३ । अ ० ३ । ब्रा ० ४ । कं ० १ ८ 
रेतः सोम ।।  शत ० का ० ३ । अ ० ३ । ब्रा ० २  । कं ० १
रात्रिरादित्यस्यादित्योददयेर्धीयते  निरू ० अ ० १२ । खं० १ १ 
सुर्य्यरश्पिचन्द्रमा गन्धर्वः।। इत्यपि निगमो भवति । सोअपि गौरुच्यते।। निरू ० अ ० २ । खं० ६ 
जार आ भगः जार इव भगम्।। आदित्योअत्र जार उच्यते, रात्रेर्जरयिता।। निरू ० अ ० ३  । खं० १ ६ 

(इन्द्रागच्छेती०) अर्थात उनमें इस रीति से है कि सूर्य का नाम इन्द्र ,रात्रि का नाम अहल्या तथा चन्द्रमा का गोतम है। यहाँ रात्रि और चन्द्रमा का स्त्री-पुरुष के समान रूपकालंकार है। चन्द्रमा अपनी स्त्री रात्रि के साथ सब प्राणियों को आनन्द कराता है और उस रात्रि का जार आदित्य है। अर्थात जिसके उदय होने से रात्रि अन्तर्धान हो जाती है। और जार अर्थात यह सूर्य ही रात्रि के वर्तमान रूप श्रंगार को बिगाड़ने वाला है। इसीलिए यह स्त्रीपुरुष का रूपकालंकार बांधा है, कि जिस प्रकार स्त्रीपुरुष मिलकर रहते हैं, वैसे ही चन्द्रमा और रात्रि भी साथ-२ रहते हैं।

चन्द्रमा का नाम गोतम इसलिए है कि वह अत्यन्त वेग से चलता है। और रात्रि को अहल्या इसलिये कहते हैं कि उसमें दिन लय हो जाता है । तथा सूर्य रात्रि को निवृत्त कर देता है, इसलिये वह उसका जार कहाता है।

इस उत्तम रूपकालंकार को अल्पबुद्धि पुरुषों ने बिगाड़ के सब मनुष्य में हानिकारक मिथ्या सन्देश फैलाया है। इसलिये सब सज्जन लोग पुराणोक्त मिथ्या कथाओं का मूल से ही त्याग कर दें।

--: ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका , महर्षि दयानंद सरस्वती 

तर्क शास्त्र से किसी भी प्रकार से यह संभव ही नहीं हैं की मानव शरीर पहले पत्थर बन जाये और फिर चरण छूने से वापिस शरीर रूप में आ जाये।


दूसरा वाल्मीकि रामायण में अहिल्या का वन में गौतम ऋषि के साथ तप करने का वर्णन हैं कहीं भी वाल्मीकि मुनि ने पत्थर वाली कथा का वर्णन नहीं किया हैं। वाल्मीकि रामायण की रचना के बहुत बाद की रचना तुलसीदास रचित रामचरितमानस में इसका वर्णन हैं।

वाल्मीकि रामायण 49/19 में लिखा हैं की राम और लक्ष्मण ने अहिल्या के पैर छुए। यही नहीं राम और लक्ष्मण को अहिल्या ने अतिथि रूप में स्वीकार किया और पाद्य तथा अधर्य से उनका स्वागत किया। यदि अहिल्या का चरित्र सदिग्ध होता तो क्या राम और लक्ष्मण उनका आतिथ्य स्वीकार करते?

विश्वामित्र ऋषि से तपोनिष्ठ अहिल्या का वर्णन सुनकर जब राम और लक्ष्मण ने गौतम मुनि के आश्रम में प्रवेश किया तब उन्होंने अहिल्या को जिस रूप में वर्णन किया हैं उसका वर्णन वाल्मीकि ऋषि ने बाल कांड 49/15-17 में इस प्रकार किया हैं

स तुषार आवृताम् स अभ्राम् पूर्ण चन्द्र प्रभाम् इव |
मध्ये अंभसो दुराधर्षाम् दीप्ताम् सूर्य प्रभाम् इव || ४९-१५

सस् हि गौतम वाक्येन दुर्निरीक्ष्या बभूव ह |
त्रयाणाम् अपि लोकानाम् यावत् रामस्य दर्शनम् |४९-१६

तप से देदिप्तमान रूप वाली, बादलों से मुक्त पूर्ण चन्द्रमा की प्रभा के समान तथा प्रदीप्त अग्नि शिखा और सूर्य से तेज के समान अहिल्या तपस्या में लीन थी।

सत्य यह हैं की देवी अहिल्या महान तपस्वी थी जिनके तप की महिमा को सुनकर राम और लक्ष्मण उनके दर्शन करने गए थे। विश्वामित्र जैसे ऋषि राम और लक्ष्मण को शिक्षा देने के लिए और शत्रुयों का संहार करने के लिए वन जैसे कठिन प्रदेश में लाये थे।


किसी सामान्य महिला के दर्शन कराने हेतु नहीं लाये थे।

कालांतर में कुछ अज्ञानी लोगो ने ब्राह्मण ग्रंथों में  “अहल्यायैजार” शब्द  के रहस्य को न समझ कर इन्द्र द्वारा अहिल्या से व्यभिचार की कथा गढ़ ली। प्रथम इन्द्र को जिसे हम देवता कहते हैं व्यभिचारी बना दिया। भला जो व्यभिचारी होता हैं वह देवता कहाँ से हुआ?

द्वितीय अहिल्या को गौतम मुनि से शापित करवा कर उस पत्थर का बना दिया जो असंभव हैं।

तीसरे उस शाप से मुक्ति का साधन श्री राम जी के चरणों से उस शिला को छुना बना दिया।

जबकि महर्षि गौतम और उनकी पत्नी अहिल्या श्रेष्ठ आचरण वाले थे । 
ये वही महर्षि गौतम है जिन्होंने वैदिक काल में न्यायशास्त्र की रचना की थी । 
->न्याय के प्रवर्तक ऋषि गौतम {Justice Formula by Gautama Maharishi}


मध्यकाल को पतन काल भी कहा जाता हैं क्यूंकि उससे पहले नारी जाति को जहाँ सर्वश्रेष्ठ और पूजा के योग्य समझा जाता था वही मध्यकाल में वही ताड़न की अधिकारी और अधम समझी जाने लगी।


इसी विकृत मानसिकता का परिणाम अहिल्या इन्द्र की कथा का विकृत रूप हैं।

तो क्या इस प्रकार की मुर्खता भरी बाते होने के कारण सब पुराणादि मिथ्या है ?
बिलकुल नही !!! यदि समस्त पुराणादि को मिथ्या माने ने पुराणो में जो विज्ञानं आदि की बाते है वो कहाँ से आई ?
-> पृथ्वी पर प्रजातियां | पुनर्जन्म : पद्म पुराण (Life Forms on Earth & Rebirth : Padma Purana)
->भ्रूणविज्ञान : श्री मदभागवतम् {Embryology in Bhagwatam}
->ॐ, साइमेटिक्स और श्री यन्त्र (Om, Cymatics and Shri Yantra)
->ब्रह्माण्ड की आयु (Universe Age - Vedas|ShriMadBhagwatam)
->सापेक्षता का सिद्धांत (Theory of relativity)
->महर्षि अगस्त्य का विद्युत्-शास्त्र {Ancient Electricity}
आदि ।
इसके अतिरिक्त जो जो बाते वेदादि विरुद्ध है वे निश्चित रूप से मूर्खों की भ्रमित बुद्धि के प्रलाप अथवा मुगल समय में  बलपूर्वक  गर्दन पर तलवार रख कर लिखवाएं गये है ॥ 


                                                             सनातन्  धर्मं: नमो नमः



जय सियाराम !!

TIME TO BACK TO VEDAS
वेदों की ओर लौटो । 


सत्यम् शिवम् सुन्दरम्

शनिवार, 8 जून 2013

हिन्दू धर्म में 33 करोड़ देवी देवता ? | 33 Crore Gods in Hinduism ?


हिन्दू धर्म में 33 करोड़ देवी देवता है , असुरों ने ऐसा उत्पात मचाया हुआ है .. वेदों के आधार पर आज इसका भंडाफोड़ करेंगे ..

सर्वप्रथम ये देखते है की देवता शब्द का वास्तविक अर्थ क्या है ?

देवो दानाद्वा, दीपनाद्वा  घोतनाद्वा, घुस्थानो भवतीति व । ।     : निरुक्त अ०  ७ । खं०  १५ 

दान देने से देव नाम पड़ता है ।  और दान कहते है  अपनी चीज दुसरे के अर्थ दे देना ।
दीपन कहते है प्रकाश करने को, धोतन कहते है सत्योपदेश को, इनमे से दान का दाता मुख्य एक ईश्वर ही है कि जिसने जगत को सब पदार्थ दे रखे है , तथा विद्वान मनुष्य भी विधादि पदार्थों के देने वाले होने से देव कहाते है ।
दीपन अर्थात सब मूर्तिमान द्रव्यों का प्रकाश करने से सुर्यादि लोको का नाम भी देव है ।
देव शब्द में 'तल्' प्रत्यय करने से देवता शब्द सिद्ध होता है ।

नैनद्देवा आप्नुवन्पूर्वमर्शत्   : यजुर्वेद अ०  ४० । मं०  ४ 

इस वचन में देव शब्द से इन्द्रियों का ग्रहण होता है । जोकि श्रोत्र , त्वचा , नेत्र , जीभ , नाक और मन , ये छ : देव कहाते है । क्योकि शब्द , स्पर्श, रूप, रस, गंध , सत्य तथा असत्य आदि अर्थों का इनके प्रकाश होता है अर्थात इन्ही ६  इन्द्रियों से हमें उपरोक्त ६ लक्षणों (शब्द , स्पर्श, रूप .....) का ज्ञान होता है ।
देव कहने का अभिप्राय ये नही की श्रोत्र , त्वचा , नेत्र ... आदि पूजनीय हो गये .

मातृदेवो भव , पितृदेवो भव, आचार्यदेवो भव अतिथिदेवो भव  । प्रपा ० । अनु ० ११ 

माता पिता , आचार्य और अतिथि भी पालन , विद्या  और सत्योपदेशादि के करने से देव कहाते है वैसे ही सूर्यादि लोकों का भी जो प्रकाश करने वाला है , सो ही ईश्वर सब मनुष्यों को उपासना करने के योग्य इष्टदेव है , अन्य  कोई नही ।  इसमें कठोपनिषद का भी प्रमाण है :

न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विधुतो भान्ति कुतोSयमग्नि : । 
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति । । 
-कठ ० वल्ली ५ । मं ० १५ 

सूर्य , चन्द्रमा , तारे , बिजली और अग्नि ये सब परमेश्वर में प्रकाश नही कर सकते , किन्तु इन सबका प्रकाश  करने वाला एक वही है क्योकि परमेश्वर के प्रकाश से ही सूर्य आदि सब जगत प्रकाशित हो रहा है । इसमें यह जानना चाहिए कि ईश्वर से भिन्न कोई पदार्थ स्वतंत्र प्रकाश करने वाला नही है, इससे एक परमेश्वर ही मुख्य देव है ।

अब ३३ देवता (न की करोड़) के विषय में देखते है :

ये त्रिंशति त्रयस्परो देवासो बर्हिरासदन् | विदन्नह द्वितासनन् || 
ऋग्वेद अ ० ६ । अ ० २ । व० ३५ । मं ० १ 

त्रयस्त्रिं;शतास्तुवत भूतान्यशाम्यन् प्रजापति : परमेष्ठय्द्हिपतिरासीत्   ||
यजुर्वेद अ०  १४   मं०  ३१ 

त्रयस्त्रिं;शत् अर्थात व्यवहार के ये (33) देवता है : 
8 वसु ,
11 रुद्र ,
12 आदित्य ,
1 इन्द्र ओर 
1 प्रजापति |

उन्मे से 8 वसु ये है :- अग्नि , पृथिवि , वायु , अन्तरिक्ष , आदित्य , घौ: , चन्द्रमा ओर नक्षत्र |
इनक नाम वसु इसलिये है कि सब पदार्थ इन्ही में वास करते है और ये ही सबके निवास करने के स्थान है । 


१ १ रूद्र ये कहाते है - जो शरीर में दश प्राण है अर्थात प्राण, अपान , व्यान , समान , उदान , नाग , कुर्म , कृकल , देवदत्त, धनज्जय और १ १ वां  जीवात्मा । क्योंकि जब वे इस शरीर से निकल जाते है तब मरण होने से उसके सब सम्बन्धी लोग रोते है ।  वे निकलते हुए उनको रुलाते है , इससे इनका नाम रूद्र है । 

इसीप्रकार आदित्य 1२ महीनो को कहते है, क्योकि वे सब जगत के पदार्थों का आदान अर्थात सबकी आयु को ग्रहण करते चले जाते है , इसी से इनका नाम आदित्य है । 

ऐसे ही इंद्र नाम बिजली का है , क्योकी वह उत्तम ऐश्वर्य की विधा का मुख्य हेतु है और यज्ञ को प्रजापति इसलिए कहते है की उससे वायु और वृष्टिजल की शुद्धि द्वारा प्रजा का पालन होता है । तथा पशुओं की यज्ञसंज्ञा होने का यह कारण है कि उनसे भी प्रजा का जीवन होता है ।  ये सब मिलके अपने दिव्यगुणों से ३ ३ देव कहाते है । 

इनमे से कोई भी उपासना के योग्य नही है, किन्तु व्यवहार मात्र की सिद्धि के लिए ये सब देव है, और सब मनुष्यों के उपासना के योग्य तो देव एक ब्रह्म ही है ।  

स ब्रह्मा स विष्णु : स रुद्रस्य शिवस्सोअक्षरस्स परम: स्वरातट । -केवल्य उपनिषत खंड १ । मंत्र ८

सब जगत के बनाने से ब्रह्मा , सर्वत्र व्यापक होने से विष्णु , दुष्टों को दण्ड देके रुलाने से रूद्र , मंगलमय और सबका कल्याणकर्ता होने से शिव है ।

--: ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका , महर्षि दयानंद सरस्वती 


                                                              सनातन्  धर्मं: नमो नमः

TIME TO BACK TO VEDAS
वेदों की ओर लौटो । 

सत्यम् शिवम् सुन्दरम्

रविवार, 2 जून 2013

प्रकाश की गति : ऋग्वेद | Speed of light in Rigveda


माना जाता है की आधुनिक काल में प्रकाश की गति की गणना Scotland के एक भोतिक विज्ञानी James Clerk Maxwell (13 June 1831 – 5 November 1879) ने की थी । 
जबकि आधुनिक समय में महर्षि सायण , जो वेदों के महान भाष्यकार थे ,  ने १४वीं सदी में प्रकाश की गति की गणना कर डाली थी जिसका आधार ऋग्वेद के प्रथम मंडल के ५ ० वें सूक्त का चोथा  श्लोक था ।

तरणिर्विश्वदर्शतो ज्योतिष्कृदसि सूर्य ।
विश्वमा भासि रोचनम् ॥ ...ऋग्वेद  १. ५ ० .४ 

 अर्थात् हे सूर्य, तुम तीव्रगामी एवं सर्वसुन्दर तथा प्रकाश के दाता और जगत् को प्रकाशित करने वाले हो।

Swift and all beautiful art thou, O Surya (Surya=Sun), maker of the light, Illuming all the radiant realm.

उपरोक्त श्लोक पर टिप्पणी/भाष्य  करते हुए महर्षि सायण ने निम्न श्लोक प्रस्तुत किया 

तथा च स्मर्यते योजनानां सहस्त्रं द्वे द्वे शते द्वे च योजने एकेन निमिषार्धेन क्रममाण नमोऽस्तुते॥ 
-सायण ऋग्वेद भाष्य १. ५ ० .४ 

अर्थात् आधे निमेष में 2202 योजन का मार्गक्रमण करने वाले प्रकाश तुम्हें नमस्कार है

[O light,] bow to you, you who traverse 2,202 yojanas in half a nimesha..
-Sage Sayana  14th AD

http://en.wikipedia.org/wiki/Sayana

yojana and nimesha are ancient unit of distance and time respectively.

उपरोक्त श्लोक से हमें प्रकाश के आधे निमिष में 2202  योजन चलने का पता चलता है अब समय की ईकाई निमिष तथा दुरी की ईकाई योजन को आधुनिक ईकाईयों में परिवर्तित कर सकते है । 

किन्तु उससे पूर्व प्राचीन समय व् दुरी की इन ईकाईयों के मान जानने होंगे .


निमेषे दश चाष्टौ च काष्ठा त्रिंशत्तु ताः कलाः |
त्रिंशत्कला मुहूर्तः स्यात् अहोरात्रं तु तावतः || ........मनुस्मृति 1-64


Manusmriti 1-64 

मनुस्मृति 1-64 के अनुसार :

पलक झपकने के समय को 1 निमिष कहा जाता है !

18 निमीष = 1 काष्ठ; 
30 काष्ठ = 1 कला; 
30 कला = 1 मुहूर्त; 
30 मुहूर्त = 1 दिन व् रात  (लगभग 24 घंटे )

As per Manusmriti 1/64 18 nimisha equals 1 kashta, 30 kashta equals 1 kala, 30 kala equals 1 muhurta, 30 muhurta equals 1 day+night 

अतः एक दिन (24 घंटे) में निमिष हुए :
24 घंटे = 30*30*30*18= 486000  निमिष 

hence, in 24 hours there are 486000 nimishas.

24 घंटे में सेकंड हुए = 24*60*60 = 86400  सेकंड 

86400 सेकंड =486000 निमिष 

अतः 1 सेकंड में निमिष हुए :
निमिष 86400 /486000  =  .17778 सेकंड 
1/2 निमिष =.08889 सेकंड 

in 1/2 nimisha approx .08889 seconds

अब योजन ज्ञान करना है , श्रीमद्भागवतम 3.30.24, 5.1.33, 5.20.43 आदि के अनुसार 
1 योजन = 8 मील लगभग 
2202 योजन = 8 * 2202 = 17616 मील 

As per Shrimadbhagwatam 1 yojana equals to approx 8 miles.

सूर्य प्रकाश 1/2 (आधे) निमिष में 2202 योजन चलता है अर्थात 
.08889 सेकंड में 17616  मील चलता है । 
.08889 सेकंड में प्रकाश की गति =  17616   मील
1 सेक में =  17616 / .08889   =  198177  मील लगभग 

Speed of light in vedas 198177 miles per second approximately .

आज की प्रकाश गति गणना 186000 मील प्रति सेकंड लगभग 

In morden science , its 186000 miles per second approximately.






                                                                       om peace

TIME TO BACK TO VEDAS
वेदों की ओर लौटो । 


सत्यम् शिवम् सुन्दरम्