अंतिम प्रभा का है हमारा विक्रमी संवत यहाँ, है किन्तु औरों का उदय इतना पुराना भी कहाँ ?
ईसा,मुहम्मद आदि का जग में न था तब भी पता, कब की हमारी सभ्यता है, कौन सकता है बता? -मैथिलिशरण गुप्त
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गुरुवार, 20 जून 2013

इन्द्र अहल्या और गौतम का सत्य | Truth of Indra Ahalya and Gautama

Truth of Indra Ahalya and Gautama
Truth of Indra Ahalya and Gautama
सबसे पहले इन्द्र और अहल्या की कथा जो अब तक प्रचलित है वो देखते है फिर भांडा फोड़ेंगे .

देवों का राजा इन्द्र देवलोक में देहधारी देव था। वह गोतम ऋषि की स्त्री अहल्या के साथ जारकर्म किया करता था। एक दिन जब उन दोनों को गोतम ऋषि ने देख लिया, तब इस प्रकार शाप दिया की हे इन्द्र ! तू हजार भगवाला हो जा । तथा अहल्या को शाप दिया की तू पाषाणरूप हो जा। परन्तु जब उन्होंने गोतम ऋषि की प्रार्थना की कि हमारे शाप को मोक्षरण कैसे व कब मिलेगा, तब इन्द्र से तो कहा कि तुम्हारे हजार भग के स्थान में हजार नेत्र हो जायें, और अहल्या को वचन दिया कि जिस समय रामचन्द्र अवतार लेकर तेरे पर अपना चरण लगाएंगे, उस समय तू फिर अपने स्वरुप में आ जाओगी।

दोस्तों उपरोक्त कथा और सत्य कथा में कुछ कुछ उतना ही अंतर है जितना :
आज दुकान बंद रखा गया है 
आज दुकान बंदर खा गया है 
में है । 

इन्द्रा गच्छेति । .. गौरावस्कन्दिन्नहल्यायै जारेति । तधान्येवास्य चरणानि तैरेवैनमेंत्प्रमोदयिषति ।। 
शत ० का ० ३ । अ ० ३ । ब्रा ० ४ । कं ० १ ८ 
रेतः सोम ।।  शत ० का ० ३ । अ ० ३ । ब्रा ० २  । कं ० १
रात्रिरादित्यस्यादित्योददयेर्धीयते  निरू ० अ ० १२ । खं० १ १ 
सुर्य्यरश्पिचन्द्रमा गन्धर्वः।। इत्यपि निगमो भवति । सोअपि गौरुच्यते।। निरू ० अ ० २ । खं० ६ 
जार आ भगः जार इव भगम्।। आदित्योअत्र जार उच्यते, रात्रेर्जरयिता।। निरू ० अ ० ३  । खं० १ ६ 

(इन्द्रागच्छेती०) अर्थात उनमें इस रीति से है कि सूर्य का नाम इन्द्र ,रात्रि का नाम अहल्या तथा चन्द्रमा का गोतम है। यहाँ रात्रि और चन्द्रमा का स्त्री-पुरुष के समान रूपकालंकार है। चन्द्रमा अपनी स्त्री रात्रि के साथ सब प्राणियों को आनन्द कराता है और उस रात्रि का जार आदित्य है। अर्थात जिसके उदय होने से रात्रि अन्तर्धान हो जाती है। और जार अर्थात यह सूर्य ही रात्रि के वर्तमान रूप श्रंगार को बिगाड़ने वाला है। इसीलिए यह स्त्रीपुरुष का रूपकालंकार बांधा है, कि जिस प्रकार स्त्रीपुरुष मिलकर रहते हैं, वैसे ही चन्द्रमा और रात्रि भी साथ-२ रहते हैं।

चन्द्रमा का नाम गोतम इसलिए है कि वह अत्यन्त वेग से चलता है। और रात्रि को अहल्या इसलिये कहते हैं कि उसमें दिन लय हो जाता है । तथा सूर्य रात्रि को निवृत्त कर देता है, इसलिये वह उसका जार कहाता है।

इस उत्तम रूपकालंकार को अल्पबुद्धि पुरुषों ने बिगाड़ के सब मनुष्य में हानिकारक मिथ्या सन्देश फैलाया है। इसलिये सब सज्जन लोग पुराणोक्त मिथ्या कथाओं का मूल से ही त्याग कर दें।

--: ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका , महर्षि दयानंद सरस्वती 

तर्क शास्त्र से किसी भी प्रकार से यह संभव ही नहीं हैं की मानव शरीर पहले पत्थर बन जाये और फिर चरण छूने से वापिस शरीर रूप में आ जाये।


दूसरा वाल्मीकि रामायण में अहिल्या का वन में गौतम ऋषि के साथ तप करने का वर्णन हैं कहीं भी वाल्मीकि मुनि ने पत्थर वाली कथा का वर्णन नहीं किया हैं। वाल्मीकि रामायण की रचना के बहुत बाद की रचना तुलसीदास रचित रामचरितमानस में इसका वर्णन हैं।

वाल्मीकि रामायण 49/19 में लिखा हैं की राम और लक्ष्मण ने अहिल्या के पैर छुए। यही नहीं राम और लक्ष्मण को अहिल्या ने अतिथि रूप में स्वीकार किया और पाद्य तथा अधर्य से उनका स्वागत किया। यदि अहिल्या का चरित्र सदिग्ध होता तो क्या राम और लक्ष्मण उनका आतिथ्य स्वीकार करते?

विश्वामित्र ऋषि से तपोनिष्ठ अहिल्या का वर्णन सुनकर जब राम और लक्ष्मण ने गौतम मुनि के आश्रम में प्रवेश किया तब उन्होंने अहिल्या को जिस रूप में वर्णन किया हैं उसका वर्णन वाल्मीकि ऋषि ने बाल कांड 49/15-17 में इस प्रकार किया हैं

स तुषार आवृताम् स अभ्राम् पूर्ण चन्द्र प्रभाम् इव |
मध्ये अंभसो दुराधर्षाम् दीप्ताम् सूर्य प्रभाम् इव || ४९-१५

सस् हि गौतम वाक्येन दुर्निरीक्ष्या बभूव ह |
त्रयाणाम् अपि लोकानाम् यावत् रामस्य दर्शनम् |४९-१६

तप से देदिप्तमान रूप वाली, बादलों से मुक्त पूर्ण चन्द्रमा की प्रभा के समान तथा प्रदीप्त अग्नि शिखा और सूर्य से तेज के समान अहिल्या तपस्या में लीन थी।

सत्य यह हैं की देवी अहिल्या महान तपस्वी थी जिनके तप की महिमा को सुनकर राम और लक्ष्मण उनके दर्शन करने गए थे। विश्वामित्र जैसे ऋषि राम और लक्ष्मण को शिक्षा देने के लिए और शत्रुयों का संहार करने के लिए वन जैसे कठिन प्रदेश में लाये थे।


किसी सामान्य महिला के दर्शन कराने हेतु नहीं लाये थे।

कालांतर में कुछ अज्ञानी लोगो ने ब्राह्मण ग्रंथों में  “अहल्यायैजार” शब्द  के रहस्य को न समझ कर इन्द्र द्वारा अहिल्या से व्यभिचार की कथा गढ़ ली। प्रथम इन्द्र को जिसे हम देवता कहते हैं व्यभिचारी बना दिया। भला जो व्यभिचारी होता हैं वह देवता कहाँ से हुआ?

द्वितीय अहिल्या को गौतम मुनि से शापित करवा कर उस पत्थर का बना दिया जो असंभव हैं।

तीसरे उस शाप से मुक्ति का साधन श्री राम जी के चरणों से उस शिला को छुना बना दिया।

जबकि महर्षि गौतम और उनकी पत्नी अहिल्या श्रेष्ठ आचरण वाले थे । 
ये वही महर्षि गौतम है जिन्होंने वैदिक काल में न्यायशास्त्र की रचना की थी । 
->न्याय के प्रवर्तक ऋषि गौतम {Justice Formula by Gautama Maharishi}


मध्यकाल को पतन काल भी कहा जाता हैं क्यूंकि उससे पहले नारी जाति को जहाँ सर्वश्रेष्ठ और पूजा के योग्य समझा जाता था वही मध्यकाल में वही ताड़न की अधिकारी और अधम समझी जाने लगी।


इसी विकृत मानसिकता का परिणाम अहिल्या इन्द्र की कथा का विकृत रूप हैं।

तो क्या इस प्रकार की मुर्खता भरी बाते होने के कारण सब पुराणादि मिथ्या है ?
बिलकुल नही !!! यदि समस्त पुराणादि को मिथ्या माने ने पुराणो में जो विज्ञानं आदि की बाते है वो कहाँ से आई ?
-> पृथ्वी पर प्रजातियां | पुनर्जन्म : पद्म पुराण (Life Forms on Earth & Rebirth : Padma Purana)
->भ्रूणविज्ञान : श्री मदभागवतम् {Embryology in Bhagwatam}
->ॐ, साइमेटिक्स और श्री यन्त्र (Om, Cymatics and Shri Yantra)
->ब्रह्माण्ड की आयु (Universe Age - Vedas|ShriMadBhagwatam)
->सापेक्षता का सिद्धांत (Theory of relativity)
->महर्षि अगस्त्य का विद्युत्-शास्त्र {Ancient Electricity}
आदि ।
इसके अतिरिक्त जो जो बाते वेदादि विरुद्ध है वे निश्चित रूप से मूर्खों की भ्रमित बुद्धि के प्रलाप अथवा मुगल समय में  बलपूर्वक  गर्दन पर तलवार रख कर लिखवाएं गये है ॥ 


                                                             सनातन्  धर्मं: नमो नमः



जय सियाराम !!

TIME TO BACK TO VEDAS
वेदों की ओर लौटो । 


सत्यम् शिवम् सुन्दरम्

शनिवार, 8 जून 2013

हिन्दू धर्म में 33 करोड़ देवी देवता ? | 33 Crore Gods in Hinduism ?


हिन्दू धर्म में 33 करोड़ देवी देवता है , असुरों ने ऐसा उत्पात मचाया हुआ है .. वेदों के आधार पर आज इसका भंडाफोड़ करेंगे ..

सर्वप्रथम ये देखते है की देवता शब्द का वास्तविक अर्थ क्या है ?

देवो दानाद्वा, दीपनाद्वा  घोतनाद्वा, घुस्थानो भवतीति व । ।     : निरुक्त अ०  ७ । खं०  १५ 

दान देने से देव नाम पड़ता है ।  और दान कहते है  अपनी चीज दुसरे के अर्थ दे देना ।
दीपन कहते है प्रकाश करने को, धोतन कहते है सत्योपदेश को, इनमे से दान का दाता मुख्य एक ईश्वर ही है कि जिसने जगत को सब पदार्थ दे रखे है , तथा विद्वान मनुष्य भी विधादि पदार्थों के देने वाले होने से देव कहाते है ।
दीपन अर्थात सब मूर्तिमान द्रव्यों का प्रकाश करने से सुर्यादि लोको का नाम भी देव है ।
देव शब्द में 'तल्' प्रत्यय करने से देवता शब्द सिद्ध होता है ।

नैनद्देवा आप्नुवन्पूर्वमर्शत्   : यजुर्वेद अ०  ४० । मं०  ४ 

इस वचन में देव शब्द से इन्द्रियों का ग्रहण होता है । जोकि श्रोत्र , त्वचा , नेत्र , जीभ , नाक और मन , ये छ : देव कहाते है । क्योकि शब्द , स्पर्श, रूप, रस, गंध , सत्य तथा असत्य आदि अर्थों का इनके प्रकाश होता है अर्थात इन्ही ६  इन्द्रियों से हमें उपरोक्त ६ लक्षणों (शब्द , स्पर्श, रूप .....) का ज्ञान होता है ।
देव कहने का अभिप्राय ये नही की श्रोत्र , त्वचा , नेत्र ... आदि पूजनीय हो गये .

मातृदेवो भव , पितृदेवो भव, आचार्यदेवो भव अतिथिदेवो भव  । प्रपा ० । अनु ० ११ 

माता पिता , आचार्य और अतिथि भी पालन , विद्या  और सत्योपदेशादि के करने से देव कहाते है वैसे ही सूर्यादि लोकों का भी जो प्रकाश करने वाला है , सो ही ईश्वर सब मनुष्यों को उपासना करने के योग्य इष्टदेव है , अन्य  कोई नही ।  इसमें कठोपनिषद का भी प्रमाण है :

न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विधुतो भान्ति कुतोSयमग्नि : । 
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति । । 
-कठ ० वल्ली ५ । मं ० १५ 

सूर्य , चन्द्रमा , तारे , बिजली और अग्नि ये सब परमेश्वर में प्रकाश नही कर सकते , किन्तु इन सबका प्रकाश  करने वाला एक वही है क्योकि परमेश्वर के प्रकाश से ही सूर्य आदि सब जगत प्रकाशित हो रहा है । इसमें यह जानना चाहिए कि ईश्वर से भिन्न कोई पदार्थ स्वतंत्र प्रकाश करने वाला नही है, इससे एक परमेश्वर ही मुख्य देव है ।

अब ३३ देवता (न की करोड़) के विषय में देखते है :

ये त्रिंशति त्रयस्परो देवासो बर्हिरासदन् | विदन्नह द्वितासनन् || 
ऋग्वेद अ ० ६ । अ ० २ । व० ३५ । मं ० १ 

त्रयस्त्रिं;शतास्तुवत भूतान्यशाम्यन् प्रजापति : परमेष्ठय्द्हिपतिरासीत्   ||
यजुर्वेद अ०  १४   मं०  ३१ 

त्रयस्त्रिं;शत् अर्थात व्यवहार के ये (33) देवता है : 
8 वसु ,
11 रुद्र ,
12 आदित्य ,
1 इन्द्र ओर 
1 प्रजापति |

उन्मे से 8 वसु ये है :- अग्नि , पृथिवि , वायु , अन्तरिक्ष , आदित्य , घौ: , चन्द्रमा ओर नक्षत्र |
इनक नाम वसु इसलिये है कि सब पदार्थ इन्ही में वास करते है और ये ही सबके निवास करने के स्थान है । 


१ १ रूद्र ये कहाते है - जो शरीर में दश प्राण है अर्थात प्राण, अपान , व्यान , समान , उदान , नाग , कुर्म , कृकल , देवदत्त, धनज्जय और १ १ वां  जीवात्मा । क्योंकि जब वे इस शरीर से निकल जाते है तब मरण होने से उसके सब सम्बन्धी लोग रोते है ।  वे निकलते हुए उनको रुलाते है , इससे इनका नाम रूद्र है । 

इसीप्रकार आदित्य 1२ महीनो को कहते है, क्योकि वे सब जगत के पदार्थों का आदान अर्थात सबकी आयु को ग्रहण करते चले जाते है , इसी से इनका नाम आदित्य है । 

ऐसे ही इंद्र नाम बिजली का है , क्योकी वह उत्तम ऐश्वर्य की विधा का मुख्य हेतु है और यज्ञ को प्रजापति इसलिए कहते है की उससे वायु और वृष्टिजल की शुद्धि द्वारा प्रजा का पालन होता है । तथा पशुओं की यज्ञसंज्ञा होने का यह कारण है कि उनसे भी प्रजा का जीवन होता है ।  ये सब मिलके अपने दिव्यगुणों से ३ ३ देव कहाते है । 

इनमे से कोई भी उपासना के योग्य नही है, किन्तु व्यवहार मात्र की सिद्धि के लिए ये सब देव है, और सब मनुष्यों के उपासना के योग्य तो देव एक ब्रह्म ही है ।  

स ब्रह्मा स विष्णु : स रुद्रस्य शिवस्सोअक्षरस्स परम: स्वरातट । -केवल्य उपनिषत खंड १ । मंत्र ८

सब जगत के बनाने से ब्रह्मा , सर्वत्र व्यापक होने से विष्णु , दुष्टों को दण्ड देके रुलाने से रूद्र , मंगलमय और सबका कल्याणकर्ता होने से शिव है ।

--: ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका , महर्षि दयानंद सरस्वती 


                                                              सनातन्  धर्मं: नमो नमः

TIME TO BACK TO VEDAS
वेदों की ओर लौटो । 

सत्यम् शिवम् सुन्दरम्